Tuesday, December 25, 2012

भीड के बेकाबू होने का ज़िम्मेदार कौन?


वे सभी मसले जिनसे असंख्य लोग जुडे होते हैं सपाट नियमों के आधार पर तय नहीं किए जा सकते। वैसा करने से मसला मात्र टाला जा सकता है और भविष्य की उलझनों की कडी में एक की वृद्धि हो जाती है। एक समूह दूसरे को गाली देता है, दूसरा जवाब देता है। समय बीतता है और गालियों का तीखापन बढता जाता है। फिर कभी सामना होने पर भीड में से एक अधिक उत्तेजित व्यक्ति हाथ चला देता है, जवाब में पत्थर चलता है और फिर क्रमशः चाकू, गोली और बम। समय बीतने के साथ गालियों और आरोपों के रूप बदल जाते हैं। हाथ उठाने वाले व्यक्ति बदल जाते हैं। देखने वाले बदल जाते हैं। कही-सुनी और बढी-चढी बची रहती है, जिसमें मतभेद अधिक, सामंजस्य कम होता है।

यह घटनाक्रम एक समय और एक स्थान पर हो तब भी यह निर्णय कर पाना बहुत कठिन होता है कि सचमुच दोषी कौन था। ऐसी घटनाएं जब सामान्य से अधिक समय तक पनपती रहें और स्थान एक इकाई में सीमित हो कर सारे शहर, प्रान्त या देश में फैल जाए तब किसी व्यक्ति या समूह विशेष को एक समय विशेष की घटना के आधार पर सारी समस्या के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता। उस घटना विशेष में हुए किसी एक कार्य के लिए वह अवश्य ही दोषी होता है।

जनसमूहों के बीच ऐसी दुर्घटनाओं के विस्तार के लिए प्राथमिक और सर्वाधिक दोष राज्य व्यवस्था का ही होता है। कारण यह कि शासन यदि समय रहते सक्रिय नहीं हुआ और आवश्यक कदम नहीं उठाए तो स्थिति बेकाबू होना लगभग निष्चित है। फिर चाहे वह गैरज़िम्मेदारी के कारण हो या किसी निहित स्वार्थ से प्रेरित। किसी भी सीमित स्थान पर भीड का जुटना विस्फोटक सामग्री के बढने जैसा है। शासन के पास उसे नियंत्रित रखने की इच्छा शक्ति तत्परता नहीं है तो पलीता कोई भी कभी भी लगा सकता है। विस्फोट हो जाने के बाद दोषी की खोज और नुकसान के जायज़े से अधिक क्या हासिल होगा। विडंबना यह कि ऐसे हादसों में पीडा सदा ही सामान्य जन या सामान्य कर्मचारी भोगते हैं, निर्णय के ज़िम्मेदार शीर्षस्थ लोग नहीं।

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