Monday, November 26, 2012

A poem from my recently published book titled — "मैंने तुम्हारी मृत्यु को देखा है " —


इमानदार प्रश्न

तुमने कभी अपनी आत्मा से
इमानदार प्रश्न किये हैं?

कि
क्यों सुबह के सूरज की लाली
तुम्हें सिन्दूर की नहीं
रक्त की याद दिलाती है?

क्यों हाथ में पुस्तक लिये
पाठशाला जाता नन्हा
कल के कर्तव्य की नहीं
कल के उस क्षण की छवि आँकता है
जब तुम हठात्
उसके जन्म के कारण बने थे?

क्यों
सूखे से बुढ़ियाई धरती की
बेजान झुर्रियां
बिवाई सी फटी उसकी छाती

तुम्हें मेहनत करने को नहीं
दान के धान से
गद्दे तकिये भरने को
कहती लगती है?

क्यों
अत्याचार से पिसी लाश
उसकी उधड़ी चमड़ी
झाँकते घाव
तुम्हारे हृदय में
करुणा नहीं
उन घावों को
और कुरेदने का
पाशविक कौतुहल भरते हैं?

क्यों
अकाल हुई
जवान विधवा के श्वेत वस्त्र
सूने नयन
तुम्हें उसकी अन्तर्वेदना की ओर नहीं
उसके वक्ष के अरक्षित उभार
उसकी अलमारी के आभूषणों
की ओर खींचते हैं?

नहीं! नहीं!
तुमने अपनी आत्मा से
कभी इमानदार प्रश्न
किये ही नहीं

तुम तो कभी न रुकने वाले
मिथ्या के अश्व पर चढ गये
उस पहले झूठ की धुरि से बँधे
असमाप्त घेरे में
निरन्तर दौड़ते हो

इमानदार प्रश्न तो क्या
तुमने तो कभी
अपनी आत्मा के किये प्रश्नों के
इमानदार उत्तर भी नहीं दिये।
-----

No comments:

Post a Comment