हमने आँखें खोलीं तो
वो सपनों की दुकान
बढ़ा कर चले गये
ये जिनको कल
गद्दी पर बैठाया है
देखो तो
क्या रखते सूनी टांडों पर
ये भी शायद
सपने ही रख देंगे
हम फिर अपने हाथों में
लेकर खून-पसीना
वैसे ही सपने खरीदते जायेंगे
और किसी दिन लुट-पिट कर
फिर जागेंगे
व्यापारी ये नये
चले जायेंगे हमको छलकर
अभी बदलना चाहो तो
सामान बदल सकता है
ये जो बेचें
वही खरीदें हम
यह नहीं जरूरी
हम जो चाहें
वह यह बेचें
ऐसा कुछ करना होगा
इनके बदले
नहीं बदलता कुछ भी
हम अपनी मांगें बदलें
चाहें बदलें
राहें बदलें
इनको अपने आप
सभी सामान बदलना होगा
दोस्त समय है
सोचो ही मत केवल
करके तो कुछ देखो
पहले इन्हें बदलने से
खुद हमको
अपना आह्वान बदलना होगा।
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( पुस्तक: ‘मैने तुम्हारी मृत्यु को देखा है’ से )
(प्रकाशक: सर्जना, शिवबाडी रोड, बीकानेर - 334003.)
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