My poem partially publihed in Rajarthan Patrika (10-3-2013)
पंखहीन हो गये परिन्दे, अर्थहीन हर शब्द होगया,
कहीं एक पशु जागा होगा, धुंधला हर प्रारब्ध होगया।
कंकालों ने करवट ली, पन्ने पलटे इतिहासों के,
आर्तनाद गलियों में गूंजा, हर चौराहा दग्ध होगया।
पहन मुखौटे भोलेभाले बारूदी आतंक फिर रहे,
मंदिर, मस्जिद, गिरजे का हर हरकारा संदिग्ध होगया।
ईद-दिवाली-बैसाखी पर साझे उत्सव स्नेह भरे थे,
प्रेत फासले के जागे, अब पनघट भी निस्तब्ध होगया।
देहरी, सीढ़ी, छत, चौबारे जाकर जो सहला आता था,
भाई को भाई का वो ही संबोधन अपशब्द हो गया।
धड से बिछुडे सर की आँखें व्यर्थ खोजतीं उपचारक को,
खंडहर जैसे शासन का हर गलियारा निःशब्द हो गया।
--सुरेन्द्र बोथरा ‘मनु’
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