Tuesday, March 12, 2013

आतंकवाद


My poem partially publihed in Rajarthan Patrika (10-3-2013)

पंखहीन हो गये परिन्देअर्थहीन हर शब्द होगया,
कहीं एक पशु जागा होगाधुंधला हर प्रारब्ध होगया।
कंकालों ने करवट लीपन्ने पलटे इतिहासों के,
आर्तनाद गलियों में गूंजाहर चौराहा दग्ध होगया।
पहन मुखौटे भोलेभाले बारूदी आतंक फिर रहे,
मंदिरमस्जिदगिरजे का हर हरकारा संदिग्ध होगया।
ईद-दिवाली-बैसाखी पर साझे उत्सव स्नेह भरे थे,
प्रेत फासले के जागेअब पनघट भी निस्तब्ध होगया।
देहरीसीढ़ीछतचौबारे जाकर जो सहला आता था,
भाई को भाई का वो ही संबोधन अपशब्द हो गया।
धड से बिछुडे सर की आँखें व्यर्थ खोजतीं उपचारक को,
खंडहर जैसे शासन का हर गलियारा निःशब्द हो गया।

--सुरेन्द्र बोथरा ‘मनु
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