आज़ादी के बाद से देश में एक अनोखे समाजवाद का प्रयोग होता आ रहा है अथवा समाजवाद का एक अनोखा प्रयोग हो रहा है, कुछ समझ नहीं पड़ता। राजाओं के उन्मूलन, राष्ट्रीयकरण, आर्थिक उदारीकरण, औद्योगिक विकास आदि अनेक साहसिक कदम कभी के उठाये जा चुके हैं और जनता को आश्वस्त सा कर दिया गया है कि सचमुच समाजवाद की ओर बहुत प्रगति हो चुकी है। प्रगति की संज्ञा से सुशोभित इन सभी व्यवस्थाओं के साथ-साथ अवनति की एक धारा भी बह रही है। ऐसी बातें भी बार-बार सामने आती रहती हैं जिनसे अनायास ही ऐसा लगता है कि यह समाजवाद जनता के हित में उतना नहीं है जितना एक विशेष तबके तथा नेताओं (जनता के प्रतिनिधियों) के हित में। चाहे तर्क करने वाले यह क्यों न कहें कि जनता की उपलब्धियों का मापदण्ड उसके प्रतिनिधियों की उपलब्धियों से ही तो होता है।
ढूंढे-खोजे बिना ही ऐसे अनेक उदाहरण मिल जायेंगे कि जनता के नाम पर बांटी जाने वाली सुविधायें चंद सामर्थ्य-सम्पन्न व्यक्तियों व उनके चहेतों के उपयोग में ही अधिक आ रही हैं। अतुलित अर्थ लाभ और सामर्थ्य लाभ को तो छोड दें, क्योंकि वह तो अदने आदमी की पहुंच के बाहर है, स्कूल-कॉलेजों में प्रवेश पाने से लेकर सिनेमा के टिकिट, बिना लाइन में खडे़ हुवे पाने जैसी गौण बातों तक अनेकों प्राथमिकताएं अदने आदमी के प्रतिनिधि ही नहीं उनके नाते-रिश्तेदार भी बिना हिचके पाते आये हैं। चाहे वे साधारण परिस्थितियों में उस योग्य हों, अथवा नहीं। आश्चर्य है कि सरकार या राजनीतिक दल उन्हें अपने विशेषाधिकारों तथा सुविधाओं के उपयोग में सावधानी बरतने को कहने की औपचारिकता मात्र निभाते हैं। इसमें संदेह नहीं कि जनता के प्रतिनिधियों को जनता के काम में सुविधा के लिये कुछ विशेषाधिकार आवश्यक हैं, पर क्या वे अधिकार उनके निजी कार्यों के लिये भी हैं तथा उनके परिचितों व सम्बन्धियों के लिये भी। क्या यह समाजवाद है? या इसे भ्रष्टाचारवाद कहें? स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि अब तो वे जनता की आवाज बुलन्द करना भूलते जा रहे हैं। अब तो पुराने राजाओं और जागीरदारों तथा आज के लोकतांत्रिक शासकों में क्या कोई अन्तर रह गया है?
अजीब कुंठित व्यक्तित्व हैं हमारे प्रतिनिधियों के कि लोक सभा में, जहां देश और जनता के महत्वपूर्ण मसलों पर विचार विमर्ष करते समय बोलने सुनने वालों की कमी पड़ जाती है या फिर दलगत विरोध बाधा बन जाते हैं किन्तु वेतन व सुविधाओं जैसे व्यक्तिगत मामलों पर निर्णय की मांग पर सभी एक स्वर में कूक उठते हैं। देश के किस अस्पताल में कोई मरीज उपयुक्त उपचार के अभाव में मर गया इसकी किसी को चिन्ता नहीं होती, पर एक नेता के सम्बन्धी की खरोंच पर टिंचर लगाने में तनिक विलम्ब होजाने पर सारा व्यवस्थातंत्र तिलमिला उठता है। एक तरफ तो कन्या-भ्रूण हत्या व बलात्कार की घटनाएं कबसे कितनी व्याप्त हैं किसी से छुपा नहीं है पर नेताओं की भावनाओं को झकझोरने के लिए राजधानी की पाविक घटना की आवश्यकता पडी। दूसरी ओर किसी नेता की शान में कोई तनिक सी भी गुस्ताख़ी हो जाए तो उसके दल के प्रत्येक सदस्य की भावना को इतनी ठेस पहुंच जाती है कि वह अपना आपा खो देता है।
जब सारे देश में कठिन परिस्थितियां व्याप्त हों तब जनप्रतिनिधियों का महज इसलिये शोर मचाना, कि उसकी जमात के किसी व्यक्ति को एक बार वही कुछ मिला जो देश के करोड़ों व्यक्तियों को रोज मिलता है, कहां तक उचित है। उन्हें आवाज उठानी ही है तो सारे देश के लिये आवाज उठायें। जनता के हित में दी गई सुविधाओं का अपने हित में उपयोग करना ही क्या सही प्रतिनिधित्व है जनता का? यदि यही नमूना है हमारे समाजवाद के जागरूक प्रतिनिधियों का तब तो हो चुका देश का भला?
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