‘विकलांग’ या ‘दिव्यांग’
प्रकृतिदत्त या परिस्थितिजन्य अभाव या अपर्याप्ति को दुर्बलता या असमर्थता कह कर पहचान के रूप में किसी पर थोपना कभी रुचा नहीं। दुर्बलता या असमर्थता वस्तुतः मानसिकता में होती है अतः पहचान का भी मानसिकता से ही होना उचित है। कुछ यही भाव एक कविता के रूप में अभिव्यक्त हो गए थे (1972)। अनेक वर्षों बाद आज ऐसा लगा कि दिव्यांग नाम देने से पहचान परिवर्तन की तरफ पहला कदम तो उठा। धीरे-धीरे उन्हें दुर्बल या दयनीय समझने की मानसिकता भी बदलेगी।
छाया का छलावा
कौन लंगड़ा है
मगर गतिवान फिर भी ?
कौन चल सकता
मगर लंगड़ा रहा है ?
कौन इन बैसाखियों से आज पूछेः
पाप करता कौन ?
जो पथ नापता है
या, जो कि लूले-स्वप्न
बाँटे जा रहा है ?
कौन लंगड़ा है ?
कौन लूला है
मगर कुछ गढ रहा है ?
कौन है जो खिलखिलाता
हाथ थामे ध्वंस के ?
कौन खोले मुट्ठियों को
और सोचे
भाग्य की रेखा दिखा कर कौन ?
स्वप्न की भोली परी के
पंख नोचे जा रहा है ?
कौन लूला है ?
कौन अंधा है
मगर कुछ देखता है ?
कौन सब कुछ देख
अंधा बन रहा है ?
कौन सूनी चोखटों पार जाये और देखेः
ज्योत्सना के स्रोत पर
कोहरा बिछा कर कौन ?
जिन्दगी के जाम में
भर कर अंधेरा पी रहा है ?
कौन अंधा है ?
कौन जगता है
नयन में आस लेकर ?
कौन सब की आस की
शैया बनाए सो रहा है ?
नींद की नगरी में किससे कौन पूछे ?
करुण क्रन्दन को
मधुर लोरी समझ कर कौन ?
स्वार्थ की अट्टालिका में
राक्षसी तन्द्रा लपेटे सोगया है ?
कौन जगता है ?
व्यर्थ ये सब प्रश्न
क्यों सब पूछते हैं ?
एक छाया के छलावे से
वृथा क्यों जूझते हैं ?
चाह कर उलझा दिया,
फिर क्यों पहेली बूझते हैं
कौन सोता, कौन जगता भूलकर
झाँकें हृदय में
और पूछें :
जागता ‘‘मैं’’ या
अभी भी सो रहा है ?
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(2012 में प्रकाशित मेरी पुस्तक ‘मैंने तुम्हारी मृत्यु को देखा है’ से )